जीन पियाजे के संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत- मनोविज्ञान के सिद्धांतों में जीन पियाजे का संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत मुख्य भूमिका अदा करता है।आज हम इसी सिद्धांत के बारे में विस्तार पूर्वक जानकारी प्रदान करेंगे।

जीन पियाजे का सिद्धांत
जीन पियाजे का जन्म 1896 ई० को स्विट्जरलैंड में हुआ था। पियाजे को विकासात्मक मनोविज्ञान का जनक माना जाता है।
जीन पियाजे की पुस्तकें
☆ बाल चिंतन की भाषा
☆ The Psychology of the Child
☆ The Psychology of intelligence
☆ The Child Conception of the World
☆ The Language And Thought of the Child
जीन पियाजे के अनुसार,
“बच्चे संसार के बारे में अपनी समझ की रचना सक्रिय रूप से करते हैं।”
जीन पियाजे के संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाएं
जीन पियाजे के संज्ञानात्मक विकास की चार अवस्थाएं हैं, इन सभी अवस्थाओं के नाम को नीचे दिए गए चार्ट में दर्शाया गया है-
क्रम संख्या | संज्ञानात्मक अवस्थाओं के नाम | समयकाल |
---|---|---|
1. | संवेदी गामक अवस्था /संवेदीपेशीय अवस्था / इंद्रिय जनित गामक अवस्था /ज्ञानात्मक क्रियात्मक अवस्था / संवेदनात्मक अवस्था / ज्ञानेंद्रिय गामक अवस्था | जन्म से 2 वर्ष |
2. | पूर्व संक्रियात्मक अवस्था / प्राक् संक्रियात्मक अवस्था / प्राक् प्रचलनात्मक अवस्था | 2 से 7 वर्ष |
3. | मूर्त संक्रियात्मक अवस्था / मूर्त प्रचलनात्मक अवस्था / स्थूल संक्रियात्मक अवस्था / ठोस प्रचलनात्मक अवस्था | 7 से 11 वर्ष |
4. | अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था / औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था / औपचारिक प्रचलनात्मक अवस्था | 11 से 15 वर्ष |
आइए जानते हैं विस्तार से-
1. संवेदी पेशीय अवस्था (जन्म से 2 वर्ष)
- इस अवस्था में शिशु शरीर से चीजों को इधर-उधर करते हैं, वस्तुओं को पहचानने का प्रयास करते हैं। वे प्रकाश तथा आवाज के प्रति क्रिया करना आरंभ कर देते हैं।
- इस अवस्था का बालक किसी भी वस्तु को देखना, पकड़ना, चूसना, दांतो से काटना आदि की स्वाभाविक क्रियाएं करता है।
- बालक असहाय जीवधारी से गतिशील, अर्धभाषी तथा सामाजिक दृष्टि से चतुर बनने का प्रयास करता है।
- प्रयास एवं त्रुटि के आधार पर परिस्थितियों को समझने का प्रयास करता है।
- वस्तु स्थायित्व का गुण विकसित हो जाता है।
- बड़ों का अनुकरण करने की प्रवृत्ति विकसित हो जाती है।
2. पूर्व संक्रियात्मक अवस्था (2 से 7 वर्ष)
पूर्व संक्रियात्मक अवस्था के दो भाग हैं –
(I) प्राक् संप्रत्ययात्मक अवधि (2 से 4 वर्ष)
(II) अन्तदर्शी अवधि (4 से 7 वर्ष)
(I) प्राक् संप्रत्ययात्मक अवधि (2 से 4 वर्ष)
सूचकता का विकास – इससे आशय यह है कि बालक यह समझने लगता है कि वस्तु, शब्द प्रतिमा तथा चिंतन किसी चीज के लिए किया जाता है। पियाजे नेे दो तरह की सूचकता पर जोर दिया है- संकेत व चिन्ह
- पियाजे के अनुसार ‘संकेत’ तथा ‘चिन्ह’ प्राक् संप्रत्ययात्मक चिंतन के दो महत्वपूर्ण साधन हैं।
- बालकों में लाक्षणिक कार्य मूलतः ‘अनुकरण’ एवं ‘खेल’ द्वारा होता है।
- चिंतन व कार्य में संकेत व चिन्ह का प्रयोग करना लाक्षणिक कार्य कहलाता है।
प्राक् संप्रत्ययात्मक अवस्था की सीमाएं-
जीववाद- जीववाद के अंतर्गत बालक निर्जीव वस्तुओं को सजीव समझता है। बालक समझता है कि बादल, साइकिल, हवा, घड़ी जैसी वस्तुएं सजीव है।
आत्मकेन्द्रिता- बालक यह सोचता है कि इस दुनिया में जो कुछ भी मौजूद है वह सब उसके लिए ही है। दुनिया की कुछ चीजें उसके इर्द-गिर्द चक्कर लगाती हैं, जैसे वह तेजी से दौड़ता है तो सूर्य भी उसके साथ चलताा है, चांद तारे उसी केे लिए चमकतेे हैं, मम्मी पापा केवल उसके हैं उन पर किसी अन्य का अधिकार नहीं है। लेकिन बालक का जैसे जैसे सामाजिक दायरा बढ़ने लगता है वैसे वैसे आत्मकेन्द्रिता कम होती जाती है।
केंद्रीयकरण- वस्तु् के एक ही पक्ष को देखना केंद्रीयकरण कहलाता है।
अहमभाव- स्वयं के दृष्टिकोण को महत्व देना, जैसे- कोई वस्तुु मेरा पीछा कर रही है।
(II) अन्तदर्शी अवधि (4 से 7 वर्ष)
- इस अवधि में बालक जोड़, घटाव, गुणा, भाग सीख लेता है, पर उसके पीछे छिपे नियमों को नहीं समझ पाता।
- इस उम्र के बच्चों के चिंतन में पलटावी गुण नहीं होता है। जैसे- यदि बालक को कहा जाए 2 * 3 = 6 हुआ तब 3 * 2 =? कितना होगा, तो वह इसका जवाब नहीं दे सकता है।
- विद्यालय से घर 2 किलोमीटर दूर है तो घर से विद्यालय की दूरी कितनी है इसको बालक नहीं समझ पाता।
- बालक में वस्तुओं को उनकी संख्या व परिणाम के संदर्भ में सही रूप से समझने की शक्ति का अभाव पाया जाता है।
जैसे- 7-8 कांच की गोलियों को पहली पंक्ति में पास-पास दिखाया जाए-

और दूसरी पंक्ति में इन 7-8 कांच की गोलियों को दूर दूर रख कर दिखाया जाए-

तब बालक यह समझने की गलती करेगा की दूसरी पंक्ति में कांच की गोलियों की संख्या पहली पंक्ति से अधिक हैं।
3. मूर्त संक्रियात्मक अवस्था (7 से 11 वर्ष)
- इस अवस्था में बालक मूर्त वस्तुओं के प्रति चिंतन करना आरंभ कर देता है ।
- चिंतन व र्तक (ठोस वस्तु आधार) क्रमबद्ध हो जाते हैं।
- बालक के चिंतन में उत्क्रमणशीलता / पलटावी गुण आ जाता है। अब वह समझने लगता है कि 3 * 2 = 6 होगा तो 2 * 3 = 6 होगा।
- बालक दिन, तारीख, समय, महीने, वर्ष बताने योग्य हो जाता है।
- बालक लंबाई, चौड़ाई, वजन, तरल तथा तत्व के संरक्षण से संबंधित समस्याओं का समाधान कर लेता है।
- बालक अनेक तार्किक क्रियाएं करने के योग्य हो जाता है।
- बालक वस्तुओं के मध्य समानता, असमानता, संबंध, दूरी और विसंगतता को समझने लगता है।
- बालक उचित और अनुचित समझने लगता है।
- वस्तु की लंबाई, वजन के अनुसार उनको क्रम से लगा सकता है।
- भाषा एवं संप्रेषण योग्यता का विकास हो जाता है।
- परंतु इस अवस्था में बालक मानसिक संक्रियाएं तभी कर पाते हैं जब वस्तु मूर्त या स्थूल रूप में हो और साथ ही बालक का चिंतन पूर्णत: क्रमबद्ध नहीं होता है।
4. अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था (11 से 15 वर्ष)
- बालक में अमूर्त चिंतन की क्षमता का विकास हो जाता है।
- बालक में सभी प्रकार के संप्रत्ययों का समुचित विकास हो जाता है।
- इस अवस्था में बालक में परिकल्पनात्मक चिंतन पाया जाता है। (imp)
- चिंतन में पूर्ण क्रमबद्धता आ जाती है।
- भाषा संबंधी योग्यता तथा संप्रेषणशीलता का विकास हो जाता है।
- अपसारी चिंतन करने लगता है।
- स्थानांतरण की योग्यता का विकास हो जाता है।
- निगमन तर्क (नियम से उदाहरण) का विकास हो जाता है।
- समस्या समाधान योग्यता का भली प्रकार विकास हो जाता है।
- बालकों में विकेंद्रण पूर्णत: विकसित हो जाता है।
- विश्लेषण, संश्लेषण, नियमीकरण तथा सूक्ष्म सिद्धांतों की स्थापना संबंधी उच्च मानसिक क्षमताओं का विकास हो जाता है।
- बालक की अवलोकन क्षमता, तर्क करने की शक्ति, सोचने विचारने की क्षमता, कल्पना करने की शक्ति तथा प्रयोग आदि के आधार पर निष्कर्ष निकालने की पर्याप्त क्षमता का विकास हो जाता है।
पियाजे के सिद्धांत के संप्रत्यय
अनुकूलन-
बालकों में वातावरण के साथ समायोजन स्थापित करने की जन्मजात प्रवृत्ति होती है, जिसे अनुकूलन कहतेे हैं। पियाजे ने अनुकूलन के प्रक्रिया की दो उप क्रियाएं बताई हैं
(I) आत्मसातकरण / आत्मीकरण / समावेशन / समावेशीकरण
☆ पूर्व ज्ञान में नवीन ज्ञान व विचार जोड़ना। अथवा
☆ नवीन जानकारियों को पूर्व प्रचलित योजना में यथावत व्यवस्थित करना।
(II) समायोजन / व्यवस्थापन / समाविष्टीकरण / स्थानीयकरण
☆ नई योजना बनाना या पुरानी योजना को संशोधित करना अथवा
☆ वर्तमान स्कीमा में सुधार करने, विस्तार करने में परिवर्तन करने से है।
साम्यधारण-
साम्यधारण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा बालक आत्मसातकरण तथा समायोजन की प्रक्रिया के मध्य एक संतुलन स्थापित करता है।
नोट- साम्यधारण की प्रक्रिया बालकों के पूर्व अनुभवों पर ही निर्भर नहीं करती बल्कि उनकी शारीरिक परिपक्वता पर भी निर्भर करती हैं।
संरक्षण-
पियाजे के इस संप्रत्यय पर मनोवैज्ञानिकों ने सर्वाधिक शोध किया।
संरक्षण से तात्पर्य वातावरण में परिवर्तन तथा स्थिरता दोनों को पहचानने एवं समझने की क्षमता तथा किसी वस्तु के रूप रंग में परिवर्तन को उस वस्तु के तत्व में परिवर्तन से अलग करने की क्षमता से होता है।
संज्ञानात्मक संरचना-
बच्चे का मानसिक संगठन या मानसिक क्षमताओं के सेट को ‘संज्ञानात्मक संरचना’ कहते हैं।
मानसिक संक्रिया-
बालक द्वारा किसी समस्या के समाधान के लिए चिंतन करना मानसिक संक्रिया कहलाता है अर्थात संज्ञानात्मक संरचना की सक्रियता ही मानसिक संक्रिया है।
स्कीम्स-
व्यवहारों का संगठित पैटर्न , जिसे आसानी से दोहराया जा सकता है स्कीम्स कहलाता है।
जैसे- बालक द्वारा विद्यालय के लिए किताबें वर्ग रूटीन के अनुसार रखना, ड्रेस पहनना, टाई पहनना इत्यादि।
स्कीमा-
एक मानसिक संरचना जो सामाजिक संज्ञान को निर्देशित करती है या
ऐसी मानसिक संरचना जिसका सामान्यीकरण किया जा सके स्कीमा कहलाती है। या
जब बालक के सामने कोई वस्तु आती है तब वह उसे संगठित करके एक अर्थ देने का प्रयास करता है इसे स्कीमा कहा जाता है।
विकेन्द्रण-
विकेंद्रण से तात्पर्य किसी वस्तु या चीज के बारे में वस्तुनिष्ठ या वास्तविक ढंग से सोचने की क्षमता से होता है। इस क्षमता का विकास लगभग 12 वर्ष की आयु में हो जाता है।
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